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विभिन्न रामायण एवं गीता >> राम चरितामृत

राम चरितामृत

मिथिलेश द्विवेदी

प्रकाशक : ऋषि लाल सामाजिक उत्थान संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :298
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9418
आईएसबीएन :0000000

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

मेरे निकुन्जस्थ पूज्य अग्रज श्री आचार्य ललित कृष्ण गोस्वामी जी का मानना था कि भारतीय संस्कृति के सत्य और धर्म दो ही आधार स्तम्भ हैं। सत्य वैयक्तिक चरित्र का आधार है और धर्म सामाजिक चरित्र का। प्रत्येक भारतीय को सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ होना चाहिए। सत्य क्रियात्मक होता है - ‘सत्यं च समदर्शनम्।’ ऐसा इसका लक्षण है अर्थात् प्राणि मात्र में समदृष्टि रखना ही सत्य है। परमात्मा ही एकमात्र सत्य है उसका निवास प्राणिमात्र में है, ऐसा विवेकपूर्ण विचार ही समदृष्टि में सहायक होता है। धर्म को शास्त्रों में ऋत कहा गया है, जिसकी धुरी पर संसार चलता रहता है। धर्म का उपदेश वेदों में दिया गया है। वह परमात्मा की नित्य सत्यवाणी है।

‘ऋतं च सूनृता वाणी’ ऐसा ऋत अर्थात् धर्म का लक्षण है।
मनुष्य का परम धर्म सर्वान्तर्यामी परमात्मा से प्रेम करना ही है।
‘सवै पुंसां परो धर्मः यतः भक्तिरधोक्षजे’ (भागवत)

अर्थ - अतीन्द्रिय सर्वान्तर्यामी परमात्मा की भक्ति ही मनुष्य का परम धर्म है। उस भावात्मक धर्म की निष्ठा होने से ही समदृष्टि रूप सत्यनिष्ठा हो सकती है।

प्रेम, अतीन्द्रिय अन्तःकरण में आनन्दरूप से प्राप्त होने वाला सुखद धर्म है। यह भगतकृपा से ही उपलब्ध होता है। अत्यन्त निश्चल भाव से इसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, ऐसा प्रयास ही मनुष्य का धर्म है। निश्छल भाव ही मनुष्यता है, यही चरित्र है। निश्छल निष्ठा ही धर्म निष्ठा है, निश्छल चरित्र ही सत्यनिष्ठा है। सत्य और धर्म में जब छल व्याप्त हो जाता है तभी अतीन्द्रिय परमात्मा को प्रकट होकर सामने आना पड़ता है, मानवाकृति में परमात्मा की प्रकट लीला भी छल है, हम उस छल से व्यामोहित होकर उनके स्वरूप में संशयित रहते हैं। श्रीराम की व्यामोहित लीला और श्रीकृष्ण की रासलीला आदि से सभी छले गये हैं। उस छल से भगवत्कृपा पात्र भक्त ही बच पाता है। छलमय लीला से जगत निष्छल होता है, विष, विष को नष्ट करता है। भारतीय संस्कृति की सर्वोच्च सिद्धि श्रीराम के चरित्र में ही प्रतिफलित हुई है।

महाराज दशरथ भारत में रामराज्य स्थापित करना चाहते थे, वे राम को प्रत्येक व्यक्ति के हृदय-सिंहासन पर आरूढ़ कर सत्य का प्रकाश चाहते थे। वे उसके लिए कटिबद्ध थे, वे अपनी प्रियतमा कैकेयी के वशंगत होते हुए भी इस कार्य में सुदृढ़ थे, श्रीराम ने पिता की इस सत्यसंधता को शिरोधार्य किया और पत्नी सहित राज्य का प्रलोभन छोड़कर राष्ट्र सेवा में समर्पित हो गये।

यः सत्यपाश परवीत पितुर्निदेशं
स्त्रैणस्य चापि शिरसा जगृहे समार्यः।
राज्यं श्रियं प्रणयिनः सुहृदो निवासं
त्यक्तवा ययौ वनम सूनिव मुक्त संङ्कः। (भागवत 9/10/8)

भागवत के इस पुण्य श्लोक से स्पष्ट होता है कि - स्त्री प्रेमी होते हुए भी दशरथ को सत्य स्थापन में कटिबद्ध देखकर उनकी सत्यसंधता को शिरोधार्य कर श्रीराम, राज्य सम्पदा, प्रेमी, मित्र, राजमहल आदि को त्यागकर अनासक्त होकर राष्ट्र सेवा के लिए निकल पड़े। यदि श्रीराम राज्य सिंहासन के लिए संघर्ष करते तो समदृष्टि से हटकर विषमता मे फँस जाते, समाज भी उसी में ग्रस्त हो जाता। महाराज दशरथ कृतकार्य होकर परमधाम चले गये। भरत ने श्रीराम की पवित्र चरणपादुका को ही आदर्श मानकर राज्य कार्य सँभाला। राम भक्तों को लगा कि प्रभु ने हमें अनाथ कर दिया। प्रतिपक्षियों को लगा हम कृतार्थ हो गये। पर विचार कर देखें दोनों इस लीला में छले गये, न भक्त अनाथ हुए, न प्रतिपक्षी कृतार्थ हुए।

इसी प्रकार स्वर्णमृग मरीचिका में फँसकर सीता का हरण कराने वाले श्रीराम ने भक्तों और प्रतिपक्षियों को छला। सीताहरण के संकाश से, रावण के चंगुल से समाज का उद्धार कर भक्तों को कृतार्थ किया, प्रतिपक्षी रावण-वंशजों को अनाथ कर दिया। आज तक, सामान्य बुद्धि-व्यक्ति श्रीराम की इन लीलाओं का विपरीत अर्थ लगाते हैं, यही तो छल लीला है।

भारतीय संस्कृति का प्रवाह, सतयुग के तपोमय जीवन से उभरकर त्रेता के मर्यादामय गृहस्थाश्रम में वेगमान हुआ है। ग्रार्हस्थ्य, व्यक्ति निर्माण की आधारशिला है। परिवार की परिधि में पनपा व्यक्ति समाज में अपनी सार्थकता प्रमाणित कर पाता है। राम ग्रार्हस्थ्य धर्म के मूर्तिमान आदर्श हैं। ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’ परिवार के सुसंस्कारों के प्रेरणास्रोत हैं। नरोत्तम राम सचल सत्याभिव्यक्ति हैं।

वे सपत्नीक राष्ट्र सेवा के लिए वन में गये, गृहस्थी की सहधर्मिणी उनके साथ थीं। सामान्य भक्त तो क्या भक्तराज भरत भी व्यामोहित होकर समझ बैठे कि श्रीराम गृह त्याग कर बनवासी त्यागी बन गए, वस्तुतः वे प्रभु की नर लीला से छले गए, चित्रकूट में वे राम से कहते हैं -

चतुर्णामाश्रमाणां हि ग्रार्हस्थ्यं, श्रेष्ठमुतमं,
आहुर्धर्मज्ञ धर्मशास्त्र कथं त्यक्तुमिच्छसि। (वाल्मीकि रामायण )

हे धर्म तत्ववेत्ता ! धर्मशास्त्र में गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है, आप उसे क्यों छोड़ने के इच्छुक हैं। क्या राज्य प्रलोभन त्यागना गृहस्थी के दायित्व का त्याग था ? सीता के हरण होने पर उन्होंने विरह-विलाप किया, क्या यह त्यागी का चरित्र था ?

स्मृतिशेष अनन्त श्री जगद्गुरु निम्बार्काचार्य स्वामी श्री राधाकृष्ण जी महाराज भी अक्सर कहते थे कि समाज में जब कभी भी सदाचार का हास होने लगता है, तभी जगन्नियन्ता समाज में सदाचार का संरक्षण एवं अनाचार से समाज को उन्मुक्त करने के लिए प्रकट होते हैं यही अवतार का प्रयोजन है। आचार मानव जीवन का जीवन्त धर्म है। आचारहीन मानव दानव हो जाता है। आचार जीवन की आधार शिला है। कुछ अवतार धर्म का उपदेश कुछ पालन और कुछ अभिरक्षण के लिए होते हैं। किन्तु, पूर्णावतार धर्म का उपदेश, पालन और अभिरक्षण तीनों ही करते हैं। भगवान श्रीराम पूर्णावतार मनसा, कर्मणा, वाचा धर्ममय हैं। उनका समग्र चरित्र मानव मात्र का आदर्श है। लोकशिक्षा एवं लोकानुग्रह के लिए ही भगवान राम प्रगट हुए। राक्षसों का वध ही उनके अवतार का प्रयोजन नहीं था, जैसा कि भागवत का कथन है -

मर्त्यावतारस्तिवह मर्त्य शिक्षणं,
रक्षोवधान्यै न केवलं विभोः।

महाकवि कालिदास कहते हैं कि राम को कुछ पाना या देना नहीं था। उनके जन्म-कर्म तो लोकानुग्रह के लिए थे।

अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किंचन विद्यते।
लोकानुग्रह अनेको हेतुस्ते जन्मकर्मणः।।

अवतारीमहापुरुष निरन्तर सदाचार और मर्यादा का पालन करते हुए जीवों का उद्धार करते हैं। जैसा कि गीता में स्वयं भगवान का उपदेश है -

यदि ह्यहं न वर्तेयं-जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

पद्मपुराण पाताल खण्ड में भगवान श्री राम के चरित्र की धर्ममयता का वर्णन है -

यस्मिन् धर्मविधिः साक्षात् पातिव्रत्यं यतस्थितं,
भ्रातृस्नेहो महान् यत्र गुरुभक्तिस्तथैव च।
स्वामिसेवकयोर्यत्र नीतिर्मूर्तिमतीसती।

अर्थात जिनके जीवन में धर्म की समस्त मर्यादा चरितार्थ हैं, सीता का पातिव्रत्य लक्ष्मण का भ्रातृ प्रेम स्वयं की गुरु भक्ति एवं आज्ञापालन, दशरथ की सत्यसंधता कौशल्या का वात्स्य, भरत की भ्रातृ भक्ति, स्वामी सेवक की नीति अनाचारियों का शासन मूर्तिमान होकर रघुवंश में प्रगट है।

महर्षि वाल्मीकि और लोक भाषा के कवि तुलसी ने रामचरित को काव्यमय रूप देकर समाज को राम का नित्य आदर्श चरित्र प्रदान किया जो कि लोक शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। राम कथा भक्ति मुक्ति देने के साथ-साथ आदर्श जीवन का एक महान मार्ग दर्शन है। संत तुलसीदास जी ने समाज को काव्यमय राम ही नहीं दिया, रामलीलाभिनय को प्रारंभ कर समाज को राममय बना दिया। चार सौ वर्षों से आज तक निरंतर श्री राम की आदर्श लीला लोगों को नव चेतना का प्रकाश और सदाचार पालन की प्रेरणा देती रही है। राम चरित का पाठ और रामलीला का दर्शन जीवन में उतारना चाहिए। जैसा कि साहित्याचार्य मम्मट ने अपने काव्य प्रकाश में निर्देश किया है -

‘‘रामादिवत् प्रवर्तितव्यं न रावणादिवत्’’

अर्थात राम सीता आदि की तरह जीवन में व्यवहार करो, रावणादि की तरह मत करो। यही रामचरित के पढ़ने और देखने का प्रयोजन है।

मर्यादा ही जीवन की कसौटी है। मर्यादाहीन मानव पशु है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने तो पशुओं को भी मर्यादित कर दिया। जटायु, जाम्बवान, अंगद आदि मानवों से भी कहीं अधिक मर्यादा में बढ़ गये। मानवों के आदर्श हो गये। मर्यादा में त्याग संघर्ष लोकापवाद आदि भी सहने पड़ते हैं। भगवान श्रीराम के चरित्र में प्रत्यक्ष घटित हुए। सुरेप्सित राज्यलक्ष्मी का त्याग, पतिव्रता, सीता को लेकर लोकापवाद आदि अलौकिक घटनायें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र के उज्जवल पक्ष हैं। स्वभाव से संकोची, पुष्पों से भी अधिक सुकोमल राम भद्र इन अवसरों में बज्र से भी अधिक कठोर हो गये। किन्तु मर्यादा की लीक नहीं छोड़ी -

बज्रदपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणाँ चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति।।

लोकोत्तर महापुरुष के जीवन में मर्यादा पालन के लिए बज्र से भी अधिक कठोर होना भी एक महान आदर्श है। श्रीमद्भागवत में शुकदेव जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम के लोकोत्तर चरित्र की अनूठी झांकी प्रस्तुत की है -

त्यक्त्वा सुदुस्त्यज सुरेप्सित राज्यलक्ष्मीं, धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यं।
मायामृगं दयितयेप्सिमन्वधावद, वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्।।

इस ग्रन्थ के रूप मे मानव-समाज के श्रेष्ठ महापुरुष राम का जीवन-चरित हिन्दी गद्य में पहले-पहल तथ्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया जा रहा है। राम का ऐतिहासिक व्यक्तित्व प्राचीन काल से आज तक करोड़ों भारतवासियों के लिए आदर्श रहा है। उन्होंने परिवार और समाज के प्रति कर्तव्य-पालन तथा अन्याय के प्रति सतत संघर्ष करने एवं उच्च कोटि के त्याग की भावना के जो उदाहरण सामने रखे, उनसे भारतीय समाज में मर्यादा की उल्लेखनीय परंपरा विकसित हुई है।

बहुसंख्यक भारतीय आज परस्पर अभिवादन करने के लिए ‘जय रामजी की’ कहते हैं; जाने या अनजाने में कोई त्रुटि हो जाने पर ‘राम-राम’ कहकर क्षोभ व्यक्त करते हैं; मरणासन्न होने पर ‘राम’ का स्मरण करते हैं तथा शव-यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ का उद्घोष करते हैं - इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय जनमानस में राम-चरित गहराई से व्याप्त है।

भारत के प्राचीन संस्कृत-साहित्य में, पौराणिक ग्रंथों में, पाली-प्राकृत भाषाओं में, जनजातियों की लोक-कथाओं एवं लोक-गीतों में राम-चरित का वर्णन विविध अलौकिक मानवेतर आख्याओं के रूप में आज भी सुलभ है। संस्कृत में वाल्मीकि-रामायण और हिन्दी में रामचरितमानस से लेकर भारत की गुजराती, बंगला, मराठी, उड़िया, असमिया, तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़ आदि प्रायः सभी भाषाओं में रामचरित को काव्य और गद्य-ग्रंथों का विषय बनाने में प्रख्यात कवियों और विद्वानों ने अपना सौभाग्य माना है। यही नहीं, भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, गुयाना, मारीशस, फीजी, सूरीनाम, नेपाल, इण्डोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, कम्पूचिया, लाओस, मंगोलिया, तिब्बत, तुर्किस्तान आदि विदेशों के जन-समाज भी राम-कथा से व्यापक रूप से प्रभावित हुए हैं; वहाँ की साहित्यिक एवं कलात्मक कृतियों में भी इसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। ऐसे महिमामय राम-चरित का ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित विवरण अपना विशेष महत्व रखता है।

प्रस्तुत ‘राम-चरितामृत’ के लेखक प्रयाग (उत्तर प्रदेश) निवासी डॉ. मिथिलेश द्विवेदी की अध्यात्म में व्यापक रुचि है और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख प्रायः प्रकाशित होते रहते हैं। उन्होंने राम-कथा के प्रति वर्तमान पीढ़ी को उदासीन देखकर आपने राम-चरित के चमत्कारिक स्वरूप के व्यावहारिक मानवीय पक्ष को ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इस कृति में स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है। आशा है, इससे पाठकों को अपने जीवन में समुचित मार्गदर्शन प्राप्त हो सकेगा।

यह उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक को किसी धार्मिक भावना से प्रेरित होकर नहीं प्रकाशित किया गया है, वरन् इसका वास्तविक कारण राम-कथा का वह महान् आकर्षण है, जो काल, देश और धर्म-विशेष की सीमाओं को लांघकर प्रत्येक आयु-वर्ग के स्त्री-पुरुषों को मुग्ध करने में समर्थ है और इस कथा के जीते-जागते आदर्श चरित्र नितांत स्वाभाविक एवं अनुकरणीय हैं। इस प्रकाशन के पीछे उद्देश्य तो यह है कि राम-कथा की व्यापक लोकप्रियता के कारण इसके माध्यम से एक ओर तो देश-विदेश में हिन्दी-साहित्य के प्रति लोगों में रुचि जागृत होगी और दूसरी ओर, इसके आदर्श पात्र जन-साधारण को चरित्र-निर्माण की प्रेरणा भी देंगे।

अपने इस प्रयास में लेखक कहाँ तक सफल हुआ है, इसका निर्णय बहुत कुछ पाठकों की अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करता है और यही निर्णय उनकी आगामी योजनाओं को अग्रसर करेगा इसलिए पाठकों से हमारा विनम्र निवेदन है कि इस संदर्भ में वे अपनी सम्मति एवं सुझावों से अवश्य अवगत करायें।

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